
उत्तराखंड,पहाड़ टुडे डेस्क।रात के सन्नाटे में जब पहाड़ों पर हवा सरसराती है, तो अब गांवों के घरों में सिर्फ मौसम की ठंडक नहीं, बल्कि डर भी उतरता है। डर इस बात का कि कहीं किसी के दरवाज़े के बाहर भालू न मंडरा रहा हो… या किसी मोड़ पर गुलदार (तेंदुआ) घात लगाए न बैठा हो।
उत्तराखंड के पहाड़ी जिलों—पौड़ी,टिहरी,उत्तरकाशी, चमोली, रुद्रप्रयाग, पिथौरागढ़ और बागेश्वर—में आजकल लोगों की दिनचर्या इसी डर के साये में गुजर रही है। खेत जाना हो, सुबह स्कूल जाना हो या शाम को पानी भरने गांव की पगडंडी से गुजरना हो… हर कदम सोच-समझकर रखना पड़ता है।
हमलों की बढ़ती घटनाएँ — आँकड़ों का कड़वा सच
प्रदेश में मानव-वन्यजीव संघर्ष (Human-Wildlife Conflict) पिछले कुछ वर्षों में तेजी से बढ़ा है।
भालू के हमले
2025 में अब तक 71 भालू हमले दर्ज किए गए।
इसी वर्ष 6 लोगों की मौत भालू हमलों में हुई।
पिछले 25 वर्षों में 2,009 लोग घायल हुए—अधिकांश ग्रामीण इलाके के लोग।
गाँव के बुजुर्ग कहते हैं—
“पहले भालू जंगल में ही रहते थे… अब बस्तियों में कचरा मिलने लगा तो जानवरों की चाल बदल गई।”
गुलदार (तेंदुआ) के हमले
पिछले 5 वर्षों में लगभग 2,000 कुल वन्यजीव हमले, जिनमें से 570 तेंदुए के।
अकेले 2023 में 21 मौतें तेंदुए के हमलों से।
2000 से 2023 तक तेंदुए और बाघ के हमलों में 551 मौतें और 1,833 घायल।
तेंदुए की आक्रामकता और आबादी दोनों में उतार-चढ़ाव है, लेकिन जंगली क्षेत्रों के सिमटने और मानव गतिविधियों के बढ़ने से संघर्ष बढ़ रहा है।
एक डर की स्टोरी—गांव की औरतों का दर्द
पौड़ी जिले की 38 वर्षीय मंजू देवी की आंखों में आज भी दहशत साफ दिखती है। कुछ महीने पहले वह अपनी सहेलियों के साथ जंगल से चारा लेने गई थीं, तभी झाड़ियों में अचानक एक काला साया हिला—और देखते ही देखते भालू ने हमला कर दिया।
“हमने शोर मचाया, लकड़ियाँ मारीं… किसी तरह जान बची, पर डर आज भी पीछा नहीं छोड़ता,” वह बताती हैं।
ऐसी कहानियाँ अब पहाड़ों में आम हो गई हैं। औरतों का कहना है कि वे अब अकेले जंगल जाने की हिम्मत नहीं करतीं। बच्चों को स्कूल भेजते समय भी घर वाले बार-बार रास्ते की सुरक्षा की चिंता करते हैं।
क्यों बढ़ रहा है संघर्ष?
विशेषज्ञ कई कारण गिनाते हैं:
- मौसम में बदलाव
गर्मियों में अपेक्षाकृत ठंड और सर्दियों में कम बर्फ पड़ने से भालू अपने प्राकृतिक व्यवहार से हट रहा है।
- कचरा और भोजन का बिखराव
मंडी क्षेत्रों, कस्बों और गांवों में खुला कचरा—सब्ज़ियों व मांस के अवशेष—भालुओं को आकर्षित करते हैं।
- वन क्षेत्र का सिकुड़ना
सड़कों, होटल निर्माण और मानव बस्तियों के फैलाव से वन्यजीवों के प्राकृतिक रास्ते टूट रहे हैं।
- जंगलों में भोजन की कमी
खाद्य-श्रृंखला प्रभावित होने से जानवर बस्तियों की ओर रुख करते हैं।
- वन-मानव संपर्क ज़ोन का विस्तार
जहां पहले मनुष्य और वन्यजीव का संपर्क कम था, अब वहीं गांवों तक गुलदार पहुँच रहे हैं।
जनता डरी-सहमी और मानसिक तनाव में
मानव-वन्यजीव संघर्ष अब सिर्फ शारीरिक खतरा नहीं, बल्कि मानसिक स्वास्थ्य का मुद्दा भी बन चुका है।
बच्चे अंधेरा होने पर घर से बाहर निकलने में हिचकिचाते हैं।
महिलाएँ पानी भरने, लकड़ी लेने और खेतों में अकेले जाने से कतराती हैं।
पशुपालक कहते हैं कि रात को पशुओं को खुला नहीं छोड़ सकते—गुलदार के डर से।
कई लोग PTSD जैसी मानसिक स्थितियों की शिकायत कर रहे हैं।
एक ग्रामीण बोला—
“हम पहाड़ के लोग बहादुर होते हैं… पर अब हम हर आवाज़ पर चौंक जाते हैं।”
सरकार और वन विभाग क्या कर सकते हैं? — विशेषज्ञों के सुझाए समाधान
2.संवेदनशील क्षेत्रों की पहचान और निगरानी
हाई-रिस्क ज़ोन में कैमरा ट्रैप
ड्रोन निगरानी
24×7 क्विक-रिस्पॉन्स टीम
2.कचरा प्रबंधन को प्राथमिकता
बाजारों में बंद कंटेनर
मांस व सब्जी अवशेषों को सुरक्षित निपटान
गांवों में स्वच्छता अभियान
3.समुदाय आधारित भागीदारी
“मानव-वन्यजीव संघर्ष समिति”
गांवों में व्हिसल/अलार्म सिस्टम
प्रशिक्षण: हमला होने पर बचाव के सुरक्षित तरीके
4.नुकसान की भरपाई और मानसिक समर्थन
घायल/मृत परिवारों को त्वरित मुआवजा
मानसिक परामर्श
अस्पताल उपचार में सहायता
5. दीर्घकालीन नीत
वन गलियारों (corridors) की बहाली
प्राकृतिक आवास को सुरक्षित रखना
पर्यटन गतिविधियों का नियंत्रित विस्तार
पहाड़ की लड़ाई — डर से सहअस्तित्व तक
उत्तराखंड के लोग प्रकृति के साथ जीने के आदी हैं, लेकिन हाल के वर्षों में यह सहअस्तित्व तनावपूर्ण हो गया है।
भालू और गुलदार की बढ़ती मौजूदगी एक चुनौती है—
लेकिन अगर सरकार, वन विभाग, शोध संस्थान और स्थानीय लोग मिलकर काम करें,
तो इस संघर्ष को कम किया जा सकता है।
पहाड़वासी उम्मीद में हैं कि आने वाले समय में
वे फिर से सुरक्षित महसूस करते हुए खेतों, जंगलों और पगडंडियों पर चल सकेंगे।
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