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पुच्छड़ी की पीड़ा: “अगर इस देश में हमारे लिए जगह नहीं… तो हमें पाकिस्तान भेज दो” — 100 वर्षीय भागीरथी देवी का छलका दर्द

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रामनगर।पुच्छड़ी गांव की सूनी पड़ी गलियों में धूल उड़ा रहा बुलडोज़र शायद रुक गया, पर लोगों के दिलों में मचा तूफान अब भी थमा नहीं है। वन विभाग की बेदखली कार्रवाई ने न सिर्फ कच्चे-पक्के घर तोड़े, बल्कि उन बूढ़ी आँखों में छिपी जीवनभर की जद्दोजहद को भी मलबे में दफन कर दिया।

संयुक्त संघर्ष समिति का प्रतिनिधिमंडल आज पुच्छड़ी गांव के पीड़ित परिवारों का हाल जानने पहुंचा। ठीक उसी समय तराई पश्चिमी वन प्रभाग के कर्मचारी मिलन चौक के ऊपर के घरों को बेदखली नोटिस थमा रहे थे। एक-एक नोटिस ऐसे बंट रहे थे मानो किसी बस्ती का नहीं, किसी किस्मत का फैसला सुनाया जा रहा हो।

भागीरथी देवी

“हमें हमारे देश में जगह नहीं, तो पाकिस्तान भेज दो” — भागीरथी देवी की फूट पड़ी वेदना

जैसे ही प्रतिनिधिमंडल सुशील कुमार के घर पहुंचा, उनकी बेटी ने कांपते हाथों से नोटिस थमाया। उसी घर में बैठी थीं सौ वर्ष से अधिक आयु की भागीरथी देवी, जिनके चेहरे पर वक्त की झुर्रियां नहीं, संघर्ष की रेखाएं खुदी थीं।

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राज्य आंदोलनकारी व उत्तराखंड परिवर्तन पार्टी के प्रधान महासचिव प्रभात ध्यानी ने जब बुढ़ी अम्मा से पूछा कि वह इस कार्रवाई को कैसे देखती हैं, तो उनका जवाब सुनकर हर किसी की आंखें नम हो उठीं—

“अगर इस देश में हमारे लिए जगह नहीं है… तो हमें पाकिस्तान भेज दो।”

भागीरथी देवी ने रोष और लाचारी के बीच कहा—
“हम यहां अपने पति के साथ जीवनभर रहे। मालिकाना हक के लिए मेरे मंगल राम दिल्ली-बोट क्लब से लेकर लखनऊ, रामनगर, नैनीताल तक धरने देते रहे… जेल भी गए। यहीं हमारे बेटे, नाती-पोते पैदा हुए। अब अचानक कैसे कह दिया कि हम घुसपैठिए हैं? कैसे निकाल देंगे हमें हमारी जड़ों से।”

भागीरथी देवी का सुने दुःख

पुच्छड़ी में ‘काली रात’: 60 से अधिक घर ढहे, मंदिर–मस्जिद–मदरसा तक नहीं बचे

प्रतिनिधिमंडल के सदस्यों — प्रभात ध्यानी, रोहित रूहेला, गिरीश चंद्र आर्य और किशन शर्मा ने बताया कि 7 दिसंबर की रात प्रशासन ने जिस तरह कार्रवाई की, उसने पूरे गांव की रूह कंपा दी।

पीड़ितों ने बताया—

6 दिसंबर की रात से ही गांव की चौतरफा नाकेबंदी कर दी गई।

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मानो कोई आतंकवादी पकड़ा जा रहा हो, न कि आम ग्रामीण।

रात 3 बजे बिजली काट दी गई।

सुबह 4 बजे अंधेरे में ही बुलडोज़र चल पड़े।

जिनके पास उच्च न्यायालय का स्थगन आदेश था, उनके घर और फसलें भी उड़ा दी गईं।

महिलाओं के साथ अभद्रता व धक्का-मुक्की और कई लोगों को हिरासत में ले लिया गया।

राजा नामक एक प्रभावित परिवार ने बताया कि वे 60 साल से अधिक समय से वहीं रह रहे थे, और घर के पास उनका दादा लगाया आम का पेड़ आज भी उनकी उपस्थिति का सबूत है।लेकिन प्रशासन की नज़र में वह पेड़ भी ‘अतिक्रमण’ का हिस्सा बन गया।

अब परिवार प्लास्टिक की तिरपालों के नीचे… ठंड में… अपने जानवरों के साथ डेरा जमाए बैठा है। पुलिस आए दिन उन्हें वहाँ से भी हटाने की चेतावनी देती है।

“डेमोग्राफी” के नाम पर पहाड़–मैदान, हिंदू–मुस्लिम की नई लकीर?

प्रभात ध्यानी ने आरोप लगाया कि इस कार्रवाई के पीछे “डेमोग्राफी बदलने” का नाम लेकर लोगों को बांटने का प्रयास किया जा रहा है, जबकि—

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प्रभावितों में अधिकांश पहाड़ी मूल निवासी हैं।

हिंदू–मुस्लिम परिवार दशकों से एक-दूसरे के साथ त्योहार, शादी-ब्याह, दुख-सुख साझा करते आए हैं।

2016–17 में स्थानीय विधायक ने स्वयं मदरसे के निर्माण के लिए 3 लाख रुपए की विधायक निधि दी थी।

फिर अचानक वही बस्तियां ‘अवैध’ कैसे हो गईं?

सबसे दर्दनाक बात यह रही कि—
जिसके झंडे–डंडे लोग सालों से उठाते रहे, वही जनप्रतिनिधि इस संकट में कहीं दिखाई नहीं दिए।

16 दिसंबर—न्याय की लड़ाई का अगला कदम

संयुक्त संघर्ष समिति ने कहा है कि वह पूरी तरह पीड़ित परिवारों के साथ है। उन्होंने सभी लोगों से 16 दिसंबर के जुलूस कार्यक्रम में बड़ी संख्या में शामिल होने की अपील की है।

मानवीय सवाल अब भी हवा में तैर रहा है—

क्या 100 साल जी चुकी एक अम्मा को भी अपनी जमीन साबित करनी पड़ेगी?
क्या पुच्छड़ी के लोग सच्चमुच अपने ही देश में बेगाने हो चुके हैं?

यह सवाल सिर्फ पुच्छड़ी का नहीं… पूरी व्यवस्था के न्याय और संवेदनशीलता का है।
और इसका जवाब अभी बाकी है।