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उत्तरकाशी में जगमगाया मंगसीर की बग्वाल का पौराणिक देवलांग महापर्व

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दुनिया की सबसे लंबी मशाल ‘देवलांग’ ने खींचा हजारों श्रद्धालुओं का ध्यान

उत्तरकाशी। दीपावली के एक माह बाद मनाया जाने वाला मंगसीर की बग्वाल इस बार भी यमुनाघाटी में अपनी अनूठी आभा के साथ चमक उठा। अमावस्या की रात को बनाल पट्टी और ठकराल पट्टी में आयोजित ऐतिहासिक राजकीय देवलांग मेला सिर्फ एक उत्सव नहीं, बल्कि सदियों पुरानी संस्कृति और सामूहिक आस्था का जीवंत प्रदर्शन बना।

रवांई घाटी में मनाए जाने वाले पौराणिक देवलांग महापर्व का मुख्य आकर्षण रहा—हजारों ग्रामीणों द्वारा तैयार की गई विशाल देवलांग, जिसे दुनिया की सबसे लंबी मशाल माना जाता है। इस विशालकाय मशाल को तैयार करने में हर वर्ग, हर गांव की महत्वपूर्ण भूमिका होती है।

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गौल गांव के लोग परंपरा अनुसार जंगल की बियांली बीट से देवदार का एक ऊँचा, हरा-भरा वृक्ष चुनकर लाते हैं। ढोल–नगाड़ों की गूंज के बीच बिना शीर्ष खंडित किए इसे मंदिर परिसर तक सम्मानपूर्वक पहुंचाया जाता है। यहां, गैर के पुजारी विशेष घास की मजबूत रस्सियों से पूरे वृक्ष को कौशलपूर्वक बांधकर देवलांग तैयार करते हैं—जिसे बनाना एक कठिन और पवित्र प्रक्रिया मानी जाती है।

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रात्रि के अंतिम पहर के बाद बनाल पट्टी के 45–50 गांवों के लोग दो थोक—साठी और पानशाही—में बंटकर ढोल–दमाऊं की थाप, जलती मशाल और पारंपरिक वेशभूषा के साथ मंदिर प्रांगण की ओर बढ़ते हैं। रातभर नृत्य–गान के बाद सुबह करीब 4:30 बजे सभी गैर राजा रघुनाथ मंदिर पहुंचते हैं। यहां देवलांग और मंदिर की परिक्रमा के बाद दोनों थोकों के थोकदार—बजीरों चौहान और रावत बंधुओं—पर परम्परागत पीठाई की रस्म निभाई जाती है।

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इसके उपरांत सबसे चुनौतीपूर्ण और रोमांचक दृश्य सामने आता है—विशाल देवलांग को बिना हाथ लगाए केवल लकड़ी की कैंचियों के सहारे खड़ा किया जाता है। इस दुरूह कार्य को गैर नटाण बंधु और बियांली के खबरेटी पुरातन शुचिता के साथ निभाते हैं।

देवलांग की ज्वाला को क्षेत्र की एकता, पवित्रता, साहस और समृद्धि का प्रतीक माना जाता है।
हर वर्ष की तरह इस बार भी महापर्व ने उत्तरकाशी की सांस्कृतिक विरासत को एक बार फिर जीवंत कर दिया।

रिपोर्ट:कीर्ति निधि सजवान, उत्तरकाशी।